Monday 2 February 2015

समाज के दो चेहरे (Dual Faced Society)

मई तंग हूँ इन दो चेहरों से, एक तरफ जरुरत से ज्यादा अच्छाई वही दूसरी तरफ हैवानियत का नकाब पहने घूमते है ये लोग , खुद से क्या बाते करते होंगे ये, या शायद ये खुद को पहचानते ही नहीं | जब दुनिया देखती है तो इनका चेहरा सफ़ेद होता है, वचन वही निकलते है जो शास्त्रों में लिखा है, लेकिन जब ये अकेले होते है तो अन्धकार का शैतान बने फिरते है ||

कहते है वाश्यकरण गलत है, पाप है, अपराध है, ऐसी स्त्रिया तुच्छ होती है, देह व्यापार जैसी घिनोनी कोई चीज़ नहीं और आज स्थिति ऐसी की कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं है | आप प्रकार बताओ, आपके घर तक सेवा आएगी | कोई उनसे पूछे की क्या यह सेवाए वो खुद उठती है, क्या हवास का नशा उनकी आँखों में है ? आकड़े कहते है की एक औरत औसतन रोज़ के दस मर्दों का ग्राहक बनती है | आज लगभग ५० लाख से भी ज्यादा औरते, बच्चिया इस कूड़े की जिंदगी में है और इनसे १० गुना है ये समाज के लोग जिन्हें हम प्रतिष्ठित कहते है |

भारत की विडम्बना देखिये एक ओर ग्रन्थ, गीता, साधू-संत और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही संस्कृतिया है, और दूसरी ओर बलात्कारियो का देश कहा जाने वाला भी देश यही है |
एक ही आदमी जब बेटी की शादी करता है तो मानो उससे विनम्र, सज्जन, कर्मबद्ध इंसान ना हो, लेकिन वही आदमी बेटे की शादी में बदले की भाव लेकर उमड़ता है, सीना फुलाए सबको ठोकर मारता है कारण यह कि वो एक बेटे का बाप है और बेटा मतलब शान, शौकत, ताकत और दुसरो की बेटो को पैरो तले कुचलने का लाइसेंस ...........   मुझे दुःख है मै एक ऐसी समाज के सोच का हिस्सा हूँ ..||

यहाँ पर्व है, खूब त्यौहार है, रश्मे है, रिवाज है, न जाने कितने लाख भगवान् है, शुक्र है कुछ भगवान् स्त्रियों के नाम भी है | हमारे यहाँ शादी दो जिस्म एक जान नहीं होती, ये एक पवित्र बंधन है, बंधन है पत्नी का पति से, जहा पति परमेश्वर होता है क्योकि भगवान् शिव भी तो पति थे, भलाही पत्नी को पारवती का ज़रा दर्जा न मिले ...|
यहाँ इस पवित्र बंधन को कोई नहीं तोड़ सकता, पति चुकी परमेश्वर है, अपने तरीके से परिवार को आगे बढ़ाएगा, पत्नी उसका ख़याल रखेगी, थके हारे आने पर पैर दबाएगी, मालिश करेगी, एक से बढ़कर एक पर्व और वर्त करेगी जिससे उसका सुहाग हमेशा सलामत रहे .... हमारे भारत में उस सुहाग के वास्ते कोई वर्त नहीं क्योकि वो परमेश्वर जो ठहरा ..|

अब बारी आती है उस सुहाग पर जिम्मेदारियों की, उसकी पहले सोच यह होती है की ज्यादा से ज्यादा बेटे पैदा हो ... बेटा मतलब लौटरी और बेटी मतलब क़र्ज़ !! जिव विज्ञानं कहता है की मर्द के शारीरिक तत्व बच्चे का लिंग निर्णय करते है लेकिन सदियों से आ रही परंपरा और पति परमेश्वर के हिसाब से इसकी पूरी जिम्मेदार औरत होती है, अब उसने ग़लती की है तो बिना दंड तो माफ़ी मिलती नहीं .. यहाँ से अत्याचार प्रारंभ होता है और सासु माँ जो खुद एक औरत है , वह जज का काम संभालती है ..|

अगर पति कुछ पढ़ा लिखा हो तो कम से कम बेटी को पढ़ा देगा, अगर सामान्य हो बेटियों को दसवी पास कराकर छुडवा देगा ... बेचारी क़र्ज़ जो ठहरी ..|

मै एक ऐसे समाज के सोच का हिस्सा हूँ..||

जाने अनजाने बने कातिल !!

खुसकिस्मत है हम जो हमे ये ज़िन्दगी मिली, खामखा रोया करते है , ढेरो शिकायते लिए इश्वर को दोषी ठहराते है | कभी खुली आँखों और खुले विचारो से दुनिया की ओर देखे तो पाए की हम कितने सुखी है |

हमारी आस्था भगवान् में हमशा ही रहती है | हर दिन किसी देव या देवी के पूजन का दिन मान्य है | इतने आस्तिक होते हुए भी हूँ तीन दिन तो सप्ताह में ऐसे निकाल ही लेते है, जब मांस का आहार कर सके ... "वाह मेरे भक्त !! पूजा का अच्छा प्रसाद खाता है तू", ऐसा ऊपर बैठा विधाता सोचता होगा | :)

मै न तो आस्तिक हु, और न ही नास्तिक | मुझे इश्वर के अस्तित्व पर संदेह है और विश्वास भी , दोनों ही पहलू है मेरे विश्वास में ... | खैर मै बात उनकी करना चाहता हु, जो इश्वर को मानते तो है पर सिर्फ उनके प्रकोप के डर से | कौन नहीं जानता, की क़त्ल एक संगीन जुर्म है ., लेकिन कानून कहता है कतल यानी इंसानों का क़त्ल न की किसी और जीव जन्तुओ का | क्या भावनाए, प्यार, अपनापन हम इंसान ही समझते है ? करुणा, दया तो हममे ही है, जानवरों में कहा ... !!
अगर कोई मेरे जैसी बाते आज किसी भी युवा समूह में कहे, तो लोग कहेंगे की महात्मा प्रवचन दे रहे है | कोई उनसे कहे की प्रवचन सुनने के लिए जो आस्था चाहिए वो एक मांसाहारी के पास कभी न होगी | यह तो महज एक सुलझी हुई समझ है " जियो और जीने दो "...|

मैं भी कभी मांसाहारी था और मैं ये समझ सकता हु की कुछ ये गलती जाने अनजाने में कर रहे है | अगर कोई बनी बनायीं स्वादिष्ट चीज़ थाली में पडोस दी जाए, तो लुफ्त उठाने में क्या हर्ज़ है | मन में दो ही बाते चलती है एक की यह काफी पौष्टिक है, दूसरी की सभी तो खा ही रहे है फिर हर्ज़ ही क्या है |
कहते है एक बच्चे का प्राथमिक विद्यालय उसका परिवार होता है और जब विद्यालय के शिक्षक ही तुम्हे प्रोत्साहन दे तो फिर कौन सी सोच और कैसी सोच |
मैं हमेशा इस बात का ख्याल रखता हु की मेरे किसी भी कर्म से किसी का नुकसान तो नहीं हो रहा और जब वो नुकसान किसी जीव की हत्या हो तो मैं किस दिल से इस पेट को उनकी कब्र बनाऊ |

इतनी छोटी सी बात लोगो को समझने में बुढ़ापा आ जाता है और वो ता उम्र इश्वर की सेवा करते है.. अजीब है ये..
मेरी तो समझ से परे है